Friday, April 25, 2014

अवधेश की नई कविता

पर्यावरण उवाच : पृथ्वी दिवस पर

सूरज

सूरज से पूछ बैठा था मैं
पर्यावरण पर कुछ बुनियादी सवाल
क्षण में बदल गए उसके सुर ताल
पर्यावरण के मुददे पर
सूरज ने काटा फिर
देर शाम तक बड़ा बवाल

सुबह से ही
दिखने लगा उसका मुख
अंगारे सा  लाल

पशु पंछी जीव
दुम दबाकर भागते - हांफते
अँधेरी कंदराओं में
छिप गये तत्काल

गली सड़को पर औंधे गिरी
आबादी की हलचल
पसर गए हर तरफ घोर सन्नाटे
शरीर पर चुभने लगे तपिश के
असंख्य कांटे
चिलचिलाती गर्मी में
पानी मांग गई
ये दुनिया बेहाल

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वायुमंडल

मैंने वायुमंडल से पूछा
पर्यावरण की असली तकदीर
ओजोन छतरी
पर बड़े छेद
से उत्पीड़ित
वायुमंडल ने इस पर मुझे
पर्यावरण पर दी अपनी
बेबाक तहरीर ......

उसने कहा घायल है उसका शरीर
ग्रीन हाउस की गैस
उसकी ओजोन पर्त पर चुभा रही हैं
अपनी पैनी शमशीर
बेबसी की है दुख भरी नजीर

इस कारण ताल ठोक कर
विश्व के मौसम ने
बदल दी अपनी पुरानी आदत
चाल -चलन / रंग ढंग
दिखा दी सभी को
अपनी नयी तस्वीर
खो गयी प्रकृति की
असली तासीर

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नदी

मिनरल वाटर हांथ में थामे
मैंने नदी की राह पकड़ी
वह दिखी बेहद दुखी
शहरी नालों की गन्दगी
कीचड़ उफान के बीच
फसी - जकड़ी
दुबली पतली नदी
पर्यावरण की बात पर
जोर से कराही

बुदबुदाते हुए उसने कहा
किस्सा भर रह गया
मेरा निर्मल जल
घाट हो गए बियाबान
जल क्रीडाओं के भूल गए पल

अब नहीं बचा
कुछ भी कहने का खास
नदियां  भूल गयी अपने उल्लास
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निशा

विरोध शोक के
काले वस्त्रों में
लिपटी निशा के साथ
तारों के झुण्ड के बीच
बैठे चन्द्रमा के दिखे
आज बदले हुए तेवर
उसने आक्रोश में कहा
पर्यावरण के असंतुलन से
बदल गए हैं
पृथ्वी की
अंदरूनी परतों के स्तर
दरक गए हैं
बड़े बड़े पहाड़ शिला खंड
जमीन के ऊपर
समुद्र के भीतर
टूट गया पृथ्वी का
अपना हरा भरा घर

नदियाँ समुद्रो तक
नहीं पहुँच पा रही
सागर सुनामी चढ़ आयी
शहरों तक सडकों पर

हरे मैदान हो गए बंजर
पहाड़ों के बीच जब से
आ गये औद्योगिक घर

अंटार्टिका में
कार्बन फुट प्रिंट पड़ गए
रूठ गयीं हैं हिम नदें
हिमालय बिना बर्फ के
होता जा रहा है खंडहर
निशा ने कहा
यही कहना है हमें
पर्यावरण दिवस पर

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-    अवधेश सिंह

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